“ मैं ब्रह्माण्ड हूं”

 “ मैं ब्रह्माण्ड हूं”


(इस पुस्तक में कुछ स्थानों पर भारत को केंद्र बिंदु में रखा गया है ऐसा करने की वजह भारत का 

महान इतिहास है जिसे हम आत्मज्ञान से अलग नही कर सकते ! क्योंकि आत्मज्ञान के विषय में जानने और समझने की शुरुआत इसी भूमि पर हुई किंतु यह पुस्तक केवल भारतीयों के लिए नहीं है यह समस्त मनुष्य जाति के लिए है जो आत्मज्ञान की खोज में लगे हुए हैं और मोक्ष, मुक्ति, या शांति के लिए भिन्न भिन्न तरह के प्रयास व अभ्यास कर रहे हैं ! यह पुस्तक किसी भी जाति संप्रदाय या व्यक्ति विशेष को आहत नहीं करती है अगर कुछ स्थानों पर कटु भाषा का उपयोग हुआ है तो वह केवल दुर्विचारों का विरोध है ना की किसी विशेष जाति, संप्रदाय का ! मेरा आपसे अनुरोध है की कृपया आप इस पुस्तक को केवल ज्ञान की दृष्टि से देखें, अपने विवेक का इस्तेमाल करें ! ताकि आप इसके मूल उद्देश्य को समझ सकें और अपने लिए कुछ विशेष प्राप्त कर सकें ! 

धन्यवाद) 



“अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥“


“ यह मेरा है, वह पराया है, ऐसा छोटें विचारों वाले व्यक्ति सोचते हैं।

उच्च चरित्र वाले लोग समस्त संसार को ही परिवार मानते हैं॥“


“भारत भूमि और आत्मज्ञान की स्वानुभूतियां”


भारत भूमि एक ऐसी भूमि है जिसे आत्मज्ञान की स्वानुभूतियों का सागर कहा जाय तो गलत ना होगा ! क्योंकि यहां ऋषियों, महर्षियों, योगियों और बहुत से महान ज्ञानियों ने अलग अलग समय पर आकर अपने आत्मज्ञान के प्रकाश को चारो ओर फैलाया और अपने आत्मज्ञान की सहायता से सांसारिक कार्यों के लिए कई उपयोगी खोजें कीं ! ताकि आम व्यक्ति के जीवन को सरलता मिल सके !


 


इसके साथ ही उन्होंने हमारे लिए वेदों, पुराणों, उपनिषदों समेत कई महान शास्त्रों की रचना की ! ताकि सभी मनुष्यों को एक सूत्र में बांधकर एक साथ आगे बढ़ाया जा सके ! यह सच है कि यह सब कार्य भारत की धरती पर हुए किंतु यह केवल भारत के लोगों के लिए नहीं बल्कि समस्त मानव जाति के लिए किए गए ! इनकी उपयोगिता भारत के लिए नहीं बल्कि सभी मनुष्यों के लिए है यही कारण है की भारत की प्राचीन संस्कृति या उसके चिन्ह  हमें किसी न किसी रूप में दुनिया के कई हिस्सों में मिलते हैं क्योंकि उस समय दुनिया इस तरह से नहीं बटी हुई थी जिस तरह से आज है और ना ही उस तरह से सोचती थी जैसे आज सोचती है !


हमारे विद्वानों ने भारत की भूमि को ज्ञान-भूमि बनाने का काम बखूबी किया है ! 

 इसलिए प्राचीन काल में भारत को विश्वगुरु की तरह देखा जाता था !

और आज भी दुनिया के कई देशों से लोग, केवल आत्मज्ञान की स्वानुभूति के लिए भारत आते हैं या भारतीय शास्त्रों का अध्ययन करते हैं ! 

 भारत में अध्यात्म हो, विज्ञान हो, खगोल विज्ञान हो, खगोल शास्त्र हो, आयुर्वेदिक चिकित्सा हो, गणित हो, योग विज्ञान हो, कृषि हो, नृत्य हो या अन्य भिन्न - भिन्न तरह की कलाएं हों !

 सभी बेहद ही दृढ़ता के साथ फली-फूली और आज यह पूरी सफलता के साथ पूरे विश्व में फैल चुकीं हैं ! यह बात अलग है की दुनिया ने इसका श्रेय हमारे पूर्वजों यानी की हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों, और विद्वानों को उस तरह से नही दिया गया जैसे दिया जाना चाहिए था !

 इसका सबसे बड़ा कारण भारत पर विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा किए जाने वाले हमले और अत्याचार थे ! जिसके कारण भारत की मूल व्यवस्थाएं बिगड़ गईं ! हजारों सालों का अभ्यास और मेहनत कुछ समय में ही बिखरने लगी ! जिनमें तब नाम मात्र ही सुधार हो पा रहा था !

दरअसल भारत वह देश है जिसने संस्कृतियों को बनाना सीखा है उसे फैलाना सीखा है ना की उसे उजाड़ना और मिटाना !

 लेकिन विदेशी आक्रांता अपनी व्यवस्थाओं को भारत पर काफी हद तक थोपने में कामयाब रहे ! उन्होंने लोगों के धर्म के साथ साथ बहुत कुछ बदलने की कोशिश की और बहुत कुछ बदल भी डाला ! 

लेकिन आज चीजें काफी बदल चुकीं हैं ! क्योंकि समय भी अपने नियम के मुताबिक बदल चुका है ! आज हम दुनिया की सशक्त शक्ति हैं ! अब हम अपने महान पूर्वजों को उनके किए गए महान कार्यों का श्रेय दिलवा सकते हैं !

वो भी तथ्यों के आधार पर ना की बल पूर्वक क्योंकि हमारी संस्कृति आत्मसाध होने में विश्वास करती है थोपने में नहीं !

  जहां तक बात रही विदेशी दुरव्यवस्थाओं की तो इसका दुष्प्रभाव आज भी भारत की महान संस्कृति को हानि पहुंचाने की एक आखरी नाकाम कोशिश कर रहा है ! नाकाम इसलिए क्योंकि जिन व्यवस्थाओं ने भारत की संस्कृति को नुकसान पहुंचाया ! आज वह खुद आहिस्ता आहिस्ता अपनी विलुप्ति होते हुए देख रहीं हैं ! वह खुद सवालों के कटखरे में खड़ी हुई हैं ! जबकि सब सहने के बाद भी भारतीय संस्कृति अपनी विषेश पहचान निरंतर बनाएं हुए है !

देखिए कोई भी नुकसान या हानि तब इतनी बड़ी नही है जब वह किन्हीं इमारतों को तोड़कर, किताबों को जलाकर, लूटकर या इतिहास बदकर की जाती है यह सब नुकसान वापिस ठीक किए जा सकते हैं लेकिन अगर आपकी सोच को ही तोड़ दिया जाए विचारों को ही जला दिया जाएं और आपकी मानसिक क्षमताओं को ही झुका दिया जाए वह हानि सही मायनो में सब कुछ हमेशा के लिए बर्बाद कर सकती है ! सबसे अच्छी बात यह है की भारत के लोग बड़ी संख्या में, किसी न किसी रूप में, आज भी अपनी संस्कृति को संजोए हुए हैं और यही ताकत हमें फिर से विश्वगुरू बनाएगी !


लेकिन अभी हमारा विषय भारत के महान इतिहास को जानना नहीं है क्योंकि वो तो बिना जाने भी महान ही है और ना ही इसकी संस्कृति को बचाना है क्योंकि ये भारतीयों के लहू में बह रही है जहां ये पूरी तरह सुरक्षित है और इसकी महानता को तो किसी भी प्रमाण की जरूरत भी नही है ! लेकिन प्रमाण के तौर पर भी अनेकों बेहतरीन पुस्तकें  लिखी जा चुकीं हैं आज ही नही बल्कि हजारों सालों से ! जो भारत के महान इतिहास को पूर्णता के साथ उजागर करती हैं !

अभी हमारा विषय है प्राचीन भारत के भीतर शुरू हुए एक प्रबल विचार जिसे हम “आत्मज्ञान” कहते हैं उस ज्ञान को समझना है !


क्योंकि मुक्ति, मोक्ष या शांति जिसके बारे में हम हमेशा से सुनते आएं हैं और आज तो भारत के ही नहीं बल्कि विश्व के अलग अलग देशों से लोग आत्मज्ञान की तलाश में भारत भ्रमण करते हैं वैसे यह कहीं बाहर तलाश करने जैसी चीज नही है लेकिन ! क्योंकि भारतीय संस्कृति में अपनी ओर मुड़ना यानी अपने भीतर झांकना और खुद को जानना ! इस तरह के अभ्यास योगियों द्वारा हजारों वर्षों से होते आए हैं और आम जन जीवन ने भी इसे बड़े पैमाने पर अपनाया है और यदि नही अपनाया तो उसका सम्मान तो किया ही है क्योंकि सबकी इच्छा मुक्ति पाने की है और यह सही भी है क्योंकि आत्मज्ञान ही वो चाबी है जो आपमें मौजूद मोक्ष के दरवाजे को खोल सकती है  उसका अगर कोई सही मार्ग  नजर आता है तो वह आत्मज्ञान ही है यही हमारे प्राचीन विद्वानों ने भी महसूस किया !

 तभी उन्होंने योग साधना द्वारा कुंडलिनी जागरण तथा मंत्र उच्चारण आदि कई तरह की शिक्षाओं को तैयार कर आम लोगों के लिए भी उपलब्ध करवाया ! ताकि आम लोग भी आत्मज्ञान का अनुभव प्राप्त कर सकें और अपने तथा दूसरों के हिस्से के जीवन को ज्यादा बेहतर कर सकें ! 


(“हिस्से के जीवन” से मेरा अभिप्राय जीवन का बटा होना है क्योंकि जीवन अलग अलग नही होता यह कुल मिलाकर एक ही होता है जो हम सभी में बटा हुआ है जिस तरह से हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में ऊर्जा बटी हुई है 

वैसे ऊर्जा ही जीवन है तो आप कह सकते हैं की जिसे हम हमारा जीवन कहते हैं वह भी हमारे अंदर कई भागों में बटा हुआ है 

हम इस पुस्तक में सरलता के साथ आगे तो बड़ना चाहते हैं किंतु बिना बारीकी को पहचाने सरलता नही मिल सकती हम चाहते हैं की आपके विचारों को जितना हो सके उतनी गहराई में उतारा जाए ताकि आपके विचारों को आत्मज्ञान के लिए बार बार भटकना न पड़े ! )


लेकिन हमें यह याद रखना होगा की आत्मज्ञान सिर्फ मार्ग है आखिरी मंजिल नहीं ! पर इस अनूठे मार्ग में भी कई छोटी बड़ी ऐसी जगह आएंगी जो आपको मंजिल का ही एहसास दिलाएंगी ! पर वह केवल आपके लिए विश्राम स्थल या सराय हैं ! वहां कुछ पल ठहरना तो ठीक है पर मंजिल समझ कर रुक जाना, आपके इस वैचारिक सफर को रोक देगा ! इसलिए इस मार्ग पर आनंद के साथ चलते रहिए ! वो भी बिना मंजिल पर पहुंचने की चिंता किए ! क्योंकि ! अगर इसका सफर इतना बेहतरीन और खुशनुमा है तो सोचो आगे मंजिल पर क्या होगा ! आइए आगे बड़े !


 

हमने शुरुआत में भारत के महान विद्वानों का उनकी उपलब्धियों को लेकर जिक्र किया जिसमें किसी को भी कोई भी संदेह नही है लेकिन

 जब हम बात ऋषियों, महर्षियों की करते हैं तो हमारे दिमाग में एक विचार हमेशा आता है कि शायद बात अध्यात्म या आस्था हो रही होगी !


 लेकिन मैं आपको पहले ही बता देता हूं कि यह कोई आध्यात्मिक पुस्तक नही है ना ही यहां पर किसी तरह की कथाएं या प्रवचन लिखे होंगे ! पर हम उनसे जुडी भावनाओं का पूरा सम्मान करते हैं लेकिन यहां कोई अध्यात्म की बातें या आस्था की चर्चा नही होगी और साथ ही मैं आपसे यह भी कहना चाहूंगा कि मैं कोई साधु, संत, ऋषि या कोई विद्वान इनमें से कुछ भी नहीं हूं और ना ही मैं कोई शास्त्रों और वेदों का पंडित या जानकार हूं मैं कोई धर्मगुरु या उनका शिष्य भी नही हूं लेकिन उनका पूरा सम्मान करता हूं 


 मैं आपको बताना चाहता हूं की मैं शिष्य तो जरूर हूं लेकिन किसी एक व्यक्ति या वस्तु का नहीं अपितु हर एक चीज़ का क्योंकि हर एक चीज़ से आपको कुछ न कुछ तो जरूर सीखने को मिलता है !


  ( चीज़ से मेरा अभिप्राय जीवित या मृत जीव जंतु, कोई भी वस्तु, पदार्थ, तत्व, रसायन सब कुछ से है)


  


  फिर भी मैं आपसे यह कहूंगा की इस पुस्तक को पढ़ने के बाद आत्मज्ञान के प्रति आपकी सोच को आगे बढ़ाने में जरूर सहायता मिलेगी !


   उसके बाद आप आत्मज्ञान के विषय में सिर्फ जानने ही नहीं लगेंगे बल्कि उसे समझने और महसूस करने भी लगेंगे ! अगर आप खुली संभावनाओं और लचीली बुद्धि के साथ जीने वाले व्यक्ति हैं तो आप आत्मज्ञान को अपने आस पास मौजूद भी पाएंगे वो भी सही मायनो में न की भ्रम की स्थिति में ! उसके बाद भी मैं आपसे यही कहूंगा की आप इस पुस्तक में मौजूद विचारों को ही आखरी विचार न समझे और आत्मज्ञान प्राप्ति के लिए भिन्न भिन्न विचारों को भी समझे ! ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि विचारों का जड़ हो जाना आपको आत्मज्ञानी नही बना सकता और अगर ऐसा होता भी है तो आप ऐसे आत्मज्ञानी होंगे जो ज्ञान का ही गला घोटेंगे ! बुद्धि का तेज़ होना तभी अच्छा होता है जब वह लचीली भी है क्योंकि कठोरता के साथ तेज होना हर सही विचार को भी काट देता है ! इसलिए अपनी बुद्धि का सहजता के साथ इस्तेमाल करें और फिर इस पुस्तक में लिखी बातों का अध्ययन कर विचार करें ! 


अब सवाल आता है की  ऐसा करा पाने में मैं कैसे सक्षम हो सकता हूं ?यह बताने के लिए मुझे अपने आत्मज्ञान के विषय में बताना पड़ेगा !


 वैसे आत्मज्ञान अपना या पराया, मेरा या उसका नहीं होता ! ये तो एक सा ही होता है और सभी में हमेशा ही होता है आप यू समझिए की आपके मस्तिष्क में एक ऐसा दरवाजा है जिसके बारे में आपको कुछ नही पता या जिसे आपने कभी नही देखा या फिर जो कभी  नहीं खुला या आपने उसे कभी खोलने की  कोशिश नहीं की ! और जब जब ऐसा हुआ कि आपने उसे खोलने की कोशिश की, तो आपने पाया की यह पूरी तरह से फंसा हुआ या अटका हुआ है और आपने सोचा शायद यह नहीं खुलेगा और तब आप वहां से लौट आएं !


 आत्मज्ञान उसी दरवाजे के अंदर मौजूद वह संसार है जो आपको आपके दर्शन करवाता है जी हां आपने सही पढ़ा ! और तब आप आप ना रह कर संसार ही बन जाते हैं आपको आपके भीतर ही पूरा संसार दिखाई देता है यह स्वानुभूति आपके अंदर स्थिरता और तीव्रता एक साथ लेकर आती है जैसा उस वक्त आपके साथ हो रहा होता है ऐसा आपके साथ पहले कभी नही हुआ होता ! बस इसी आत्मदर्शन को हम आत्मज्ञान कह कर पुकारते हैं !

 मैं बस आपसे इतना ही कहूंगा की आत्मज्ञान को लेकर मेरी समझ आपको मेरी आगे आने वाली बातों और विचारों से पता लग जाएगी ! मैं ऐसा प्रमाण वश नही कह रहा हूं बल्कि मनुष्यों की एक विशेषता यह भी है की उन्हें जिस विषय में थोड़ा जोर लगाना पढ़ता है उसे वह उपयोगी मान ही लेते हैं बेशक उन्हें उसे छोड़ना ही क्यों ना पढ़ जाए ! वैसे मैंने इसे सरलता देने की पूरी कोशिश की है !

लेकिन उसके बाद भी मेरे आगे आने वाले विचारों को पढ़ने के बाद  आप मुझे जो भी नाम की संज्ञा दें वह आपकी इच्छा होगी ! 

 मैं आपसे यही कहूंगा की ! यहां जो भी लिखा जा रहा है वह कुल मिलाकर आपके अंदर या आपके मन में आने वाले विचारों के सवालों के जवाब ही हैं जो आपसे कई तरह के सवाल करते हैं केवल आपके अपने वजूद के विषय में ! पर आप किन्ही वजहों से उसे वो जवाब नही दे पाते जो उसे चाहिए होते हैं और फिर वह विचार बिना संतुष्ट हुए  कुछ समय के लिए वापिस लौट जाते हैं और समय समय पर उत्पन होते रहते हैं !

लेकिन अब उन सभी विचारों के सवालों के जवाब शब्दो द्वारा इस पुस्तक में अपनी पूर्णता को हासिल करेगें या पूर्णता के नजदीक तो पहुंचेगें ही ! पर इस पुस्तक की पूर्णता को आप अपनी पूर्णता मत समझना !


इससे कोई फर्क नही पढ़ता की इसे किसके द्वारा लिखा या बताया जा रहा है ! आप ये मानकर चलिए की ये आपके द्वारा ही सोचा गया है जो किसी और की सहायता से लिखा जा रहा है क्योंकि ब्रह्मांडीय नियमानुसार हम एक दूसरे से अलग होते हुए भी अलग नही हैं !

 तो चलिए इस सफर की शुरुआत करते हैं एक खुली हुई बुद्धि के साथ !


 


आत्मज्ञान की स्वानुभूति हजारों वर्षों से समय-समय पर लोगों के साथ होती आई है ! क्योंकि भारतीय सभ्यता सबसे पुरानी है इसलिए आप मान सकते हो की यहां आत्मज्ञान की स्वानुभूति भी सबसे पहले हुई होगी ! 

क्योंकि तभी विचारों को लगातार आगे बढ़ाया जा सकता है और विचार करने की सीमाओं को लांघा जा सकता है ! और ऐसा हमारे पूर्वजों ने करके भी दिखाया है !

 एक चीज जो इसमें गौर करने वाली है वह यह है कि हजारों वर्ष पूर्व जब “श्री राम जी” को, जो आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई थी या “श्री कृष्ण जी’ और “गौतम बुद्ध” को आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई या आज जब भी किसी भी मनुष्य को आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है तो वह बिल्कुल भी एक दूसरे से अलग नहीं होती !


जो आत्मज्ञान हजारों वर्ष पूर्व किसी भी मनुष्य में फूटा था वही आत्मज्ञान आज भी किसी भी मनुष्य में उसी तरह से ही फूटता है और वही दिखाता है जो पहले किसी को भी दिखाया था ! बस सारा खेल वहां की जाने वाली यात्रा का है जिसकी जितनी लंबी यात्रा होगी वह उतने ही और नए रंग इकट्ठे कर पाएगा ! जो रुक जायेगा या लौट आएगा वह वापिस उन्हीं पुराने विचारों के सवालों में भटक जाएगा !


 (केवल समझाने के लिए मैने "प्राप्ति" शब्द का उपयोग किया है वैसे आत्मज्ञान हमारे अंदर "फूटता" ही है क्योंकि यह पहले से ही हमारे अंदर है ना की इसे कहीं से प्राप्त करना होता है) 


 आत्मज्ञान का एक जैसा होने की प्रक्रिया हमें यह बताती है ! की जो मूल तत्व है जिसने आपको, मुझे, आसपास की चीजों को, लोगों को, जल वायु को, पृथ्वी को, चंद्रमा को, सूर्य को, तारों को या पूरे ब्रह्मांड को रचा है वह मूल तत्व सबका एक ही है ! क्योंकि आत्मज्ञान की स्वानुभूति आपको ब्रह्मांड के साथ सीधे जोड़ती है यही वजह है कि आत्मज्ञान हमेशा एक सा ही फूटता है ! हम सब दिखते ज़रूर अलग -अलग हैं लेकिन होते एक जैसे ही हैं ! और इसके अलावा जो सोचने का विषय है  वह यह है कि आत्मज्ञान के फूटने की घटना हम मनुष्यों के लिए बेशक विशेष हो ! लेकिन ब्रह्मांड के स्तर पर यह बहुत ही मामूली है या फिर इसका कोई मूल्य ही नही है !


इसका कारण यह है कि आप ब्रह्मांड से अलग नहीं है बल्कि आप ही तो ब्रह्मांड हैं ! जी हां ! आप ही ब्रह्मांड हैं ! आपके आस पास या दूर रखी हुई हर एक चीज़ ब्रह्मांड है ! मनुष्यों को छोड़ बाकी सभी जीव जंतु और अन्य सभी चीजें आत्मज्ञान के साथ ही जीती हैं !  उन्हें उसे खोजना नही पड़ता !  क्योंकि उन्हें आत्मज्ञान के दूर या पास, अंदर या बाहर होने का कोई एहसास नही है ! वह आत्मज्ञान को सही मायनो में जीते हैं लेकिन मनुष्यों ने आत्मज्ञान को अपनी चुनाव करने की क्षमता के कारण ना जाने किन किन विचारों से, किन किन चीजों से ढक दिया है इसलिए मनुष्यों को आत्मज्ञान ढूंढना पड़ता है और उसे पाने की अलग-अलग तैयारी करनी पड़ती है वह भूल चुका है आत्मज्ञान उसमें पहले से ही मौजूद है बस उसे उस तक पहुंचना है भटकाऊ विचारों के पहाड़ को हटाकर ! 

लेकिन आत्मज्ञान के दरवाजे तक पहुंचना मनुष्य लिए एक संघर्ष बना हुआ है और यह संघर्ष उसने खुद ही अपने चुनाव से पैदा किया है जबकि वह इसे बदल सकता है ! 

 तो अब आप ही बताइए की यह जानना, की आपको आत्मज्ञान हुआ है यह आपकी विशेष प्राप्ति कैसे हो सकती है आइए ओर बारीकी से समझें ! 


 


 


आत्मज्ञान वह स्वानुभव है जो आपको ब्रह्मांड के साथ जोड़ने का काम करता है पर अगर हम दूसरी दृष्टि से बात करें तो यह सच है कि आप ब्रह्मांड का ही हिस्सा हो या फिर यूं कहें कि आप ही ब्रह्मांड हो ! तो फिर आत्मज्ञान आपको ब्रह्मांड से जोड़ कैसे सकता है ! जैसा मैंने आपको पहले बताया था की आत्मज्ञान हममें हर समय मौजूद होता है बस उस दरवाजे को खोलने की देर है लेकिन उससे पहले हम और अच्छे से इसे जानते हैं कि आखिर आत्मज्ञान क्या है वह काम किस तरह से करता है देखिए जिस तरह से आपके अंदर अलग-अलग तरह की भावनाएं है अलग-अलग तरह के विचार हैं उसी तरह से आत्मज्ञान भी एक भावना व एक विचार ही है !

हम इसे इस तरह से समझते हैं कि आपके दिमाग में कई सारे कमरे मौजूद हैं जिसमें अलग-अलग तरह के विचार बसते हैं आत्मज्ञान भी एक कमरे में  मौजूद एक सुदृढ़ विचार ही है लेकिन वहां पूरा ब्रह्मांड बसता है वहां वो भी है जो आपके दूसरे कमरों में मौजूद है बल्कि वो कमरे भी मौजूद हैं ! वहां हर एक विचार कहीं ज्यादा साफ छवि के साथ दिखाई पढ़ता है !


 हां यह सच है की आत्मज्ञान नाम के कमरे में पहुंच पाना बेहद मुश्किल है ! जिसे हम आगे समझेंगे ! लेकिन पहले हम यह समझते हैं कि आत्मज्ञान काम कैसे करता है ! हम मान लेते हैं कि आप आत्मज्ञान रूपी कमरे में प्रवेश कर गए ! अब आपको वहां खड़े नहीं रहना है क्योंकि ऐसे बहुत से लोग हैं जिनका वह दरवाजा खुल तो गया और वह उसमें प्रवेश भी कर गए परंतु वह उसे निहार कर ही वापस आ गए ! उसमें मौजूद अनंत ज्ञान उनसे वैसे ही छूटा रह गया ! 

मेरा कहना है की आपको उस कमरे के अंदर आगे बढ़ते चले जाना है क्योंकि सिर्फ खड़े रहने से आप उसकी खूबसूरती को तो निहार सकते हो लेकिन आत्मज्ञान के ज्ञान को अपने विचारों की गहराई तक नही पहुंचा सकते ! क्योंकि जब आप उसकी गहराई की सीमा तक पहुंचोगे तभी आपको ब्रह्मांड होने का पता लगेगा मैंने गहराई की सीमा तो कहा है लेकिन इसकी कोई सीमा है नहीं !


क्योंकि जब आप ब्रह्मांड होने के अहसास को पा लेंगे ! तो भी यह खत्म नहीं होगा बल्कि तब आपको एक नई सीमा तय करने का अवसर मिलेगा जो आपको और ज्यादा ब्रह्मांड बनने का अवसर प्रदान करेगी और वो बनने के बाद भी आप और ज्यादा ब्रह्मांड बनने की पूरी उम्मीद कर सकते हैं ! यह सिलसिला आपके लिए यूं ही चलता रहेगा ! और यह कभी खत्म नहीं होगा ! कम से कम इस शरीर के लिए तब तक तो ! जब तक आप इस शरीर रूपी ढांचे में मौजूद इच्छाओं की संभावनाओं से हमेशा के लिए  मुक्त नहीं हो जाते या आसान भाषा में कहें तो, आप जब तक मर नही जाते ! मरने के बाद आप केवल इस शरीर रूपी ढांचे की इच्छाओं से मुक्त हो सकते हैं लेकिन अपने मूल अस्तित्व से कभी मुक्त नही हो सकते ! क्योंकि वह हर चीज से परे है और हर जगह मौजूद है आपके नष्ट हो चुके शरीर में भी यह मौजूद है और वही आपको ब्रह्मांड भी बनाता है !


 

(मेरी बचपन की एक इच्छा)

“भावनाएं और उनकी संभावनाएं”

………………..



(मैं और ब्रह्मांड)



मैं जानता हूं कि मैं ब्रह्मांड की बहुत बड़ी प्रक्रिया के बहुत बड़े पैमाने की

 बूंद भर मात्र हूं जिसका कार्य कुछ ही समय में समाप्त हो जाएगा और मैं नष्ट होकर फिर से ब्रह्मांड की उसी बड़ी प्रक्रिया का हिस्सा बन जाऊंगा ! 


यह सही है की मैं कभी समाप्त तो नही होऊंगा ! हमेसा मौजूद रहूंगा ! 

लेकिन शायद मैं दोबारा इसी रंग, रूप, स्वभाव वाले ढांचे में फिर से नहीं ढल पाऊंगा ! 


शायद आने वाली पीढ़ियां चाहे वह जीवो की हो या जंतुओं की या अन्य किसी भी चीज़ की उनमें अंश भर मात्र रहूंगा !


 यह प्रकृति की वह सच्चाई है जिसे खुद प्रकृति ने ही हम इंसान कहे जाने वाले जीवो से कहलवाया  है किंतु मैं फिर भी यह जानने का इच्छुक हूं कि क्या ब्रह्मांड के पास वह ताकत है कि जिससे मेरा मौजूदा अस्तित्व कभी खत्म न हो या यू कहें कि ये हमेशा बना रहे !


 मैं ब्रह्मांड को कोई चुनौती नहीं दे रहा हूं बल्कि की मैं तो खुद उसी की ही देन हूं

 मैं तो बस ब्रह्मांड के इस महान सफर को तब तक देखना चाहता हूं जब तक यह खत्म नहीं हो जाता और मेरी इच्छाओं को शून्य नहीं कर देता !


……


 लेकिन अभी तो हमें आत्मज्ञान की गहराई को जानने की कोशिश करनी है तो ऐसा करने के लिए आपको आत्मज्ञान के कमरे में आगे बढ़ना होगा तब आप पाएंगे कि आप नए तरह के ज्ञान से परिचित हो रहे हैं ऐसा ज्ञान जो आपको पहले कभी नहीं मिला या फिर मिला भी है तो समझ नहीं आया !


 


 अब उस कमरे में आने से पहले आपके जो भी विचार थे अगर आप वह विचार फिर से दोहराते हैं तब आप पाएंगे कि वह विचार आपके अंदर पुनर्स्थापित हो रहे होंगे उनमें कहीं ज्यादा पूर्णता आ जायेगी ! अब आप उनको बहुत ही बारीकी से समझ पा रहे होंगे ! अब आपको आपके सवालों के जवाब मिलना शुरू हो गए होंगे ! क्योंकि आत्मज्ञान से आप अपने और सभी चीजों के मूल तत्व को जान पाते हैं  !


 


अब हम समझते हैं की ये होता कैसे है !


आत्मज्ञान दरअसल मूल तत्व का  पता  ही  है पता लगने से  अभिप्राय यह है कि आपको सभी चीजों में खुद को देखने का आभास हो पाना ! खुद को देखने से मेरा मतलब है कि आप जिससे बने हो उसी से ही बाकी सभी चीजें बनी है यह देख पाना !  चाहे आज कितने भी प्रकार के जीव-जंतु हों, वस्तुएं हों, पदार्थ हों, रसायन हो आदि सभी का मूल तत्व एक ही है ! सभी पर मूल तत्व पूरी तरह से बिखरा हुआ है


जहां तक बात रही ब्रमांड में मौजूद प्रतेक वस्तु की ! तो यह  सभी मूल तत्व के द्वारा ही, खुद के ऊपर चढ़ाई गई मूल तत्व की ही परतें हैं मनुष्य को छोड़कर बाकी सभी चीजें इन परतों के बावजूद भी अपने मूल तत्व के साथ ही जीती हैं क्योंकि उनमें मूल तत्व का होना या ना होना विचार का या खोज का विषय नही है !


 लेकिन मनुष्य के साथ ऐसा नही है मनुष्य ने मूल तत्व की परतों के बाद भी कई परतें चढ़ा रखी हैं ! 

ये परतें मनुष्य को हमेशा बेचैन रखती हैं हमेशा कुछ कमी का अहसास दिलाती रहती हैं वैसे तो ये परतें भी मूल तत्व ने ही मनुष्य को अपनी सहायता से ही दीं हैं लेकिन ये मूल तत्व के ज्ञान को समझने की प्रकिया को धीमा कर देती है जिस कारण मनुष्य को मूल तत्व तक पहुंचने के लिए ज्यादा समय देना पड़ता है और ज्यादा से ज्यादा विचारों और खोजों के साथ गुजरना पड़ता है इतने समय में तो ज्यादातर लोगों की देह का ही अंत हो जाता है परंतु यह केवल उन मनुष्यों की बात है जो आत्मज्ञान की खोज में हैं अधिकतर मनुष्य इससे अनभिज्ञ  हैं या अन्य कार्यों में संलग्न हैं !


मनुष्य के लिए आत्मज्ञान तक पहुंचना कई प्रक्रियाओं से गुजरना है उनमें से सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया वह है जब कोई व्यक्ति बहुत ही गहरी सोच की प्रक्रिया से गुजर रहा होता है या अपनी बुद्धि के  उच्च स्तर को छू रहा होता है तब उसके शरीर और मस्तिस्क में रासायनिक प्रक्रिया पूरी ज्वलंतता के साथ उभर रही होती है वही आग सभी परतों को जला देती है और तब हम मूल तत्व तक पहुंचते हैं जिससे हम सब बने हैं वैसे तो यह प्रक्रिया लगभग स्वचालित ही होती है पर आप इसका अभ्यास करने की भी कोशिश कर सकते हैं 

“ मेरा अपना स्वानुभव था की मुझे इस तरह से नई सोच या एक नई दुनिया का दर्शन हुआ” !


हां मैंने इसे अभ्यास की तरह नही किया तब ये पूरी तरह से कुदरती था लेकिन आप इसे अभ्यास की तरह कर सकते हैं क्योंकि प्रक्रिया तो जड़ तक पहुंचने की ही है फिर चाहे रास्ता अलग ही क्यूं ना हो !


 


तो आपको पहले ये करना है की आप अगर  किसी भी ऐसी अध्यात्मिक चीज से जुड़े हैं जिसे आप बेहद मान्यता देते हैं या बहुत मानते हैं और पूरी दृढ़ता के साथ उसका अनुसरण करते हैं तो आपको उसकी मदद से अपने आत्मज्ञान के दरवाजे को खोलना है ! 

आपको बस इतना करना है की  उसे मानते हुए आप उसे गहराई से जानने की कोशिश शुरू कर दें ! इसका यह बिलकुल भी मतलब नही है की आपको आस्तिक से नास्तिक बनने को कहा जा रहा है इसका आस्तिकता और नास्तिकता से कोई लेना देना नहीं है ! हमने आध्यात्मिकता को इसलिए चुना क्योंकि आध्यात्मिकता आपको ज्यादा गहराई देती है बजाय किसी अन्य विचार के ! तो अब आपको इसे इस तरह से करना है की जैसे आप किसी आध्यात्मिक ट्रेन को चला रहें हैं जो एक ही पथ (ट्रैक) पर सालों से चल रही है बस आपको अचानक लेकिन पूरी सहजता के साथ बिना ट्रेन को हानि पहुंचाए बिना खुद को हानि पहुंचाए ! उसे दूसरे ट्रैक पर उतरना है मैं आपसे ट्रेन को पटरी से उतरने के लिए नही कह रहा हूं बस आपको पटरी बदलनी है ! यानी आप जिन्हे मानते हो उन्हें जानने के पथ पर लाना है ! 

यह शुरूआत में थोड़ा कठीन होगा ! क्योंकि जब आत्मज्ञान की तरफ आप कुदरती तरीके से बढ़ते हो ! तब तो  मन में कोई डर या पछतावा नही होता क्योंकि तब आप स्वभावतः इससे जुड़ जाते हो ! लेकिन  जब आप इसे अभ्यास के द्वारा करेंगे, तब थोड़ा डर, थोड़ी शंका और पछतावा होना स्वाभाविक है ¡ क्योंकि तब आपके कई विश्वासों को थक्का लगेगा और जैसे ही आप आगे बढ़ेंगे तो वह डगमगाना भी शुरू हो जाएंगे ! लेकिन कुछ समय बाद सब कुछ बदलना शुरू हो जाएगा ! क्योंकि अभी तक आप आध्यात्म के समुंद्र में केवल ऊपर की तरफ तैर रहे थे लेकिन अब आप आत्मज्ञान के द्वारा उस समुंद्र की गहराइयों में खुद को उतरा पाओगे ! क्योंकि तब आप अपने मूल तत्व के निकट हो रहे होंगे या उसे छू रहें होंगे ! 

और फिर यह वैचारिक प्रक्रिया अपने चरमबिंदू को हासिल करेगी और तब बाकी सब कुछ खुद ब खुद होता चला जाएगा ! 

और आपको यह एहसास होगा की आपको उस क्षण जैसे पूरे ब्रह्मांड का ज्ञान होना शुरू हो गया  है !

 यह वैसा ही है जैसे कोई झरना ऊपर से किसी गहरी खाई में गिरता सा चला जा रहा हो !

यह वही समय होता है जो आपको पूरे ब्रह्मांड के साथ मिलाने का काम करता है वह क्षण आपको और ज्यादा आगे बढ़ने का निर्देश देता है और आपमें असीमित संभावनाओं को जागृत करता है 

वह क्षण आपके जीवन में चल रही उथल-पुथल को कुछ समय के लिए पूरी तरह से शांत कर देगा ! 

तब आपके लिए समाज, संप्रदाय, परिवार इन सब जैसी कोई चीज नहीं रह जाती बल्कि आप जो अपने बारे में जानते थे वह भी कोई मायने रखता ! 

यह सब एक घुटन की तरह आपका गला दबाने लगती है जैसे की आप इन सबसे बस बाहर ही निकालना  चाहते हों और साथ ही आप इससे खुद को बाहर भी पाते हो ! यह सारे अनुभव आपको एक साथ होना शुरू होते हैं और फिर यही अनुभव आपमें स्वानुभव को जागृत कर रास्ता दिखाते हैं !

“यह स्वानुभव आपको एक ही क्षण में “सब कुछ और कुछ भी नही बना देता है”


इसी अनंत एहसास को “आत्मज्ञान” का नाम दिया गया है ! किंतु हमें यह समझना होगा कि यह केवल एक शब्द है ज्यादा बड़ी बात यह है कि आप यह जाने कि आप ही ब्रह्मांड है बेशक ब्रह्मांड भी एक शब्द ही है किंतु वह आपको आत्मज्ञान से कहीं ज्यादा मुक्त होने का एहसास दिलाता है क्योंकि अमूमन यही पाया गया है की आत्मज्ञान की प्राप्ति भी तृप्ति तक ले जाने में पूरी तरह से कामयाब नहीं हो पाती !


 उसके कुछ कारण हैं जब हमें आत्मज्ञान होता है तब सबसे पहला काम हम यह करते हैं कि खुद को ज्यादा बेहतर समझने लगते हैं खुद को ज्यादा पूर्ण समझने लगते हैं ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आत्मज्ञान एक अज्ञात कमरे के खुलने के जैसा है जिसके मिलने पर हम प्रसन्न तो होते हैं पर उस प्रसन्नता को समेट कर उस अज्ञात कमरे में आगे बढ़ने की बजाय उस प्रसन्नता को वापिस उसी दुनिया में लगाना चाहते हैं जिस दुनिया से हम कभी भी खुद को तृप्त नही पाते थे ! ऐसा करने के पीछे अलग अलग कार्यों में छुपी हुई हमारी नई पुरानी असफलताएं भी हैं जो हमें बार बार याद आकार काफी दुख पहुंचाती हैं ! आत्मज्ञान का स्वानुभव हमें उस मरहम की तरह लगता है जिसे हम उन असफलताओं के जख्मों पर मल सकते हैं और खुद को वापिस तैयार कर लोगों के लिए चुनौती बन सकते हैं ! 


ऐसा नही है की वापिस लौटना गलत है इसमें कुछ भी गलत नहीं है लेकिन यह करना आपको सीमित कर देता है क्योंकि जब आप पूर्णता की ओर जा सके हो, पूरा ब्रह्मांड बन सकते हो तो केवल एक व्यक्ति बने रहना बहुत ही सस्ता सौदा है ! लेकिन हमें इसे भी समझना होगा की ! हम पृथ्वी पर मौजूद व्यक्तियों से अपनी तुलना करना और उनसे बेहतर दिखना पसंद करते हैं क्योंकि हमें बचपन से यही करना  सिखाया भी गया है ! दूसरा हम खुद को उनके सबसे नजदीक भी पाते हैं क्योंकि हम देखते वैसे हैं ! अब आपका यह एहसास कि आपको आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई है या आपके साथ कुछ अलग लेकिन बेहतर हो रहा है आपको थोड़ा घमंडी या अहंकारी भी बना देता है ! 

मैं फिर से कहूंगा घमंडी या अहंकारी होना भी ब्रह्मांड का ही एक विचार है यहां हम अच्छे या बुरे होने के विषय में बात नहीं कर रहें है ! यहां केवल यह बताया जा रहा है की ! इसमें सिमट कर रह जाना आपको दूसरों के लिए या तो एक ज्ञानी पुरुष और समझदार व्यक्ति  बना सकता है या फिर सबसे दूरियां भी बड़ा सकता है !

 पर ब्रह्मांड नहीं बना सकता ! इसलिए आपको आत्मज्ञान के स्वानुभव के बाद, आत्मज्ञान के मार्ग पर आगे चलकर ब्रह्मांड होना चुनना चाहिए न की सिर्फ एक ज्ञानी पुरुष बने रहने की कोशिश करनी चाहिए !


 


अब आप कहेंगे कि ज्ञानी पुरुष होने में समस्या क्या है ज्ञानी पुरुष तो सभी होना चाहते हैं और ज्ञानियों की दुनिया को जरूरत भी है और उनकी इज्जत भी ज्यादा है मैं कहता हूं की आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं कि ज्ञानियों का सम्मान सभी करते हैं और ज्ञानी या विद्वान पुरुष होना गौरव की बात होती है जिसे मैं भी मानता हूं और मैं इसके खिलाफ भी नहीं हूं क्योंकि जो इस पुस्तक में जो लिखा जा रहा है वह शायद ज्ञानियों के लिए समझना जल्दी और ज्यादा आसान होगा ! 

और मुझे उनसे बैर भी नहीं पालना ! 

 मैं यहां केवल आत्मज्ञानियों की बात कर रहा हूं ! जिन्हे यह खूबसूरत स्वानुभव हुआ है ! सभी ज्ञानी पुरुष, आत्मज्ञानी नही होते ! ज्ञान प्राप्ति के अन्य कई दरवाजे मौजूद हैं उनकी भी अपनी अपनी विशेषताएं हैं लेकिन यहां केवल उनकी बात की जा रही है जो आत्मज्ञान के मार्ग से गुजर रहें हैं सिर्फ उनको वापिस नही लौटना चाहिए ! क्योंकि वो बेहद ही सुंदर और मनोहर मार्ग पर हैं जो उन्हें कुछ चुनिंदा लोगों में खड़ा करता है जिन्होंने खुद में इसे खोजा है !


लेकिन मैं जो कहना चाहता हूं वह थोड़ा सा अलग है !

आत्मज्ञानी होना और ब्रह्मांड होना दोनो ही तुलनात्मक रूप से भिन्न भी है ! हालांकि ब्रह्मांडीय स्तर पर इनकी तुलना नही की जा सकती बल्कि किसी भी चीज़ की तुलना नही की जा सकती ! पर तुलना न करना आप तभी समझ सकते हैं जब आप इन दोनो की तुलना करते हैं ! वह तुलना यह है की ! आत्मज्ञानी पुरुष केवल ब्रह्मांड के ज्ञान का ज्ञाता होता है वह ब्रह्माण्ड की चाल, उसकी कला, उसके गुण और उसकी अन्य विशेषताओं से भली भांति परिचित हो सकता है  लेकिन जो पुरुष ब्रह्मांड है वह अनंत का भी स्वामी होता है ! अब यह आपका चुनाव है की आप क्या होना चाहते हो !


 ( जब मैं पुरुष कहता हूं ! 

तो मैं स्त्री और पुरुष दोनों को ही सम्बोधित कर रहा होता हूं यह दोनो के लिए है ) !




 

“अगर कोई पूछें कि ब्रह्मांड के बारे में क्या जानते हो ! 

तो कहना की वही जो अपने बारे में जानता हूं क्योंकि

 "मैं ही ब्रह्मांड हूं” !



आंखों से देखो अपनी विशालता


 आइए इसपर एक अलग तरह की रोशनी डालते हैं देखिए यह हम सब जानते हैं कि जो हम सुनते हैं और जो हम देखते हैं उसमें से देखना श्रेष्ठ माना जाता है आंखों की गवाही कानों की गवाही से ज्यादा महत्वपूर्ण है ऐसा हमारे द्वारा जो समाज बनाया गया है उसका कहना है तो चलिए हम भी अपने आत्मज्ञान के दावों को इसी तरह से मजबूत करने की कोशिश करते हैं ताकि सरलता के साथ यह आम लोगों तक पहुंच सके और उन्हें समझ आ सके क्योंकि हम आखिर इसे लिख तो उन्हीं के लिए ही रहे हैं !


 देखिए आत्मज्ञान की बातें तो सदियों से होती आ रही है और शायद आगे भी होती रहेगी लेकिन यह हमेशा महसूस करवाने के स्तर तक ही रह जाता है जो इसे महसूस कर पाता है उसके लिए तो यह पूरी दुनिया बन जाता है या फिर कुछ समय का अनुभव !


लेकिन जो इसे महसूस नहीं कर पाते वह इससे अनभिज्ञ रह जाते हैं और इसे कभी भी समझ नहीं पाते ! 


 बेशक हमारे शास्त्रों को आत्मज्ञान द्वारा लिखा गया और उसमें विषयों को भली-भांति समझाया भी गया है यहां तक की “श्रीमद्भगवद्गीता” तो सारी ही आत्मज्ञान है !

 (ऐसा मेरा मानना है क्योंकि मेरा अनुभव उसे पढ़ने पर ऐसा ही है) !


 इतना कुछ होने के बावजूद भी आखिर आज भी आत्मज्ञान कुछ लोगों तक सिमट कर रह गया है ! 


हां मैं सही कह रहा हूं क्योंकि आत्मज्ञान सीधे तौर पर लोगों को महसूस नहीं करवाया जा सकता ! यह किसी शिक्षण संस्थान से जुड़ा कोई कोर्स भी नही है बल्कि आज भी यह एक कुदरती प्रक्रिया ही है ! हां यह सच है कि योगा, मेडिटेशन जैसी क्रियाओं द्वारा इसको पाने की कोशिश आज भी जा रही है और वह कुछ लोगो के लिए सफलता भी बनी है लेकिन वह भी सिर्फ संभावना ही है और आत्मज्ञान फूटने की संभावना तो हर एक कार्य में है, यह आपमें कभी भी, कहीं भी फूट सकता है ! बस आप कोई निश्चित कार्य या निश्चित जगह का पता नही बता सकते, की यह यहीं फूटेगा ! लेकिन इसके फूटने की संभावना प्रत्येक कार्य और प्रत्येक जगह में अवश्य ही है !  वैसे योगा, मेडिटेशन स्वास्थ्य के लिए बहुत फायदेमंद है इसलिए वह सब को करना चाहिए चाहे आत्मज्ञान की स्वानुभूति हो या न हो !


 लेकिन अभी हम बात आत्मज्ञान की कर रहें हैं तो उसके जो रास्ते हैं वह रास्ते आपको सिर्फ प्रलोभन ही देंगे ! बेशक वह गलत रास्ते नही हैं संभावना उनमें भी छुपी हुई है लेकिन प्रमाण कहीं नही है इस पुस्तक में भी नहीं ! 


 अगर बात इस पुस्तक की करें तो आप इस पुस्तक को भी प्रलोभन ही कह सकते हैं लेकिन जब आपने कई रास्ते अपना ही लिए हैं या अपनाने वाले हैं तो इसमें दिए गए रास्ते से क्यों नहीं !


   वेदों और शास्त्रों में मौजूद इतनी सारी उपयोगी सामग्री होने के बाद भी आखिर क्यों आत्मज्ञान की स्वानुभूति सिमटी हुई है इसका जो मूल कारण मुझे नजर आता है वह यह है कि हमने लोगों में आत्मज्ञान केवल शब्दो द्वारा महसूस करवाने के स्तर और कथाओं द्वारा सुनाने तक ही सीमित रखा है जब तक हम उनकी नजरों से यह नहीं दिखाएंगे की आत्मज्ञान उनके पास पहले से ही हैं वह तरफ बिखरा हुआ है और वह पहले से ही आत्मज्ञानी हैं तब तक हम उस संख्या तक नहीं पहुंच सकते ! जब हम यह कह सके कि हर कोई आत्मज्ञानी  है !


  देखिए सबसे पहले तो हमें जो आत्मज्ञान स्वानुभव करना है उसे अपने आसपास देखना होगा क्योंकि आत्मज्ञान एक स्वानुभूति है लेकिन दृश्य तो ब्रह्मांड ही है अगर दृश्य साफ हो जाए तो स्वानुभूति भी हो जायेगी !



अब आपको करना यह है की आपको खुद को और अपने चारों तरफ, ऊपर नीचे  सब कुछ देखना है चाहे वह दूर है या पास, छोटा है या बड़ा, जो आप फिलहाल देख नही सकते उसकी कल्पना करनी है अगर आपकी कल्पना में आपके परिजन आएं जो अब जीवित नही हैं आप उन्हें भी सोचिएगा क्योंकि जीना मरना भी केवल एक कल्पना ही है बल्कि सही मायनो में जो कल्पना है वह हमें ब्रह्मांड होने में कहीं ज्यादा सहायता करती है ! इस ब्रह्मांड में ना ही कोई आता है और ना ही कोई जाता है हम केवल यहां हो सकते हैं वो भी ब्रह्मांड के रूप में ! क्योंकि हर एक रुप में हम मूल तत्व से ही उत्पन हैं और मूल तत्व किसी भी अवस्था में ना ही जन्म लेता है और ना ही समाप्त होता है ! अगर हम यह कहें की हम ही मूल तत्व हैं तो भी यह गलत नही होगा ! 

और जब आप इसे भी समझ जाओगे तो आप पाओगे की आत्मज्ञान को प्राप्त नही किया जाता बल्कि ये तो हमेशा ही आपके साथ है और यही आपको ब्रह्मांड होने का भी प्रमाण देगा !


  वैसे अमूमन होता यह है कि आत्मज्ञान की स्वानुभूति पहले होती है और फिर उनमें से कुछ ही लोग ब्रह्मांड होना समझ पाते हैं लेकिन यहां हम इसे उल्टा करने की कोशिश करेंगे क्योंकि आत्मज्ञान की स्वानुभूति तो कुदरती रूप से कुछ चंद लोगों में ही होती है पर हम इस पुस्तक से यह पक्का करना चाहते हैं कि यह स्वानुभूति ज्यादा से ज्यादा लोगों को हो पाए !


  इसके लिए आपको आत्मज्ञान की तलाश में कहीं नही भटकना बल्कि आपको पहले ब्रह्मांड क्या है और किस तरह का है इसे समझना है और जब ऐसा होगा तब आत्मज्ञान स्वयं होगा और आपका ब्रह्मांड होना भी पक्का हो जाएगा फिर आप बिना किसी हिचकिचाहट के कह पाओगे की  "मैं ब्रह्मांड हूं" !


   जैसा कि हम पहले ही बात कर चुके है कि आस-पास मौजूद हर एक चीज वही मूल तत्व से बनी है जिससे हम और आप बने हैं !

 इससे यह तो साफ हो जाता है कि जो आत्मज्ञान होने पर स्वानुभव होता है वह गलत, छलावा या कोई भ्रम नहीं है अब हमें इसको अपने साथ इस तरह से जोड़ना है कि हम एक कदम बढ़ाते हुए सीधा ब्रह्मांड ही बन जाएं !


   

“मूल तत्व क्या है”


 अभी तक की चर्चा में हमने ब्रह्मांड में मौजूद प्रत्येक चीज़ को मूल तत्व से जोड़ा है पर हम ये नही समझे की मूल तत्व है क्या ! तो आइए सबसे पहले हम मूल तत्व के बारे में समझते क्योंकि उसे जाने बगैर आप वहां नही पहुंच पाओगे जहां इस पुस्तक द्वारा आपको ले जाया जा रहा है  देखिए जो मूल तत्व है सच कहें तो उसके बारे में हममें से कोई भी नहीं जानता कि वह क्या है क्योंकि अगर आप यह कहते हैं कि ब्रह्मांड आज से लगभग साढ़े 13 अरब साल पहले बना है और जो तब था वही मूल तत्व है तो भी यह सही मायनों में पूरी तरह से सही साबित नही होगा ! क्योंकि हम सवाल उठा सकते हैं की 50 अरब साल या 100 अरब साल पहले क्या था हमें समय में जितना भी कहें उतना पीछे जाने की आजादी है और अगर कुछ भी नहीं था तो भी वह तो था ही जिसमें कुछ भी नही था ! 

क्या पता वही मूल तत्व हो ! इस तरह से तो यह पहली उलझती ही चली जाएगी ! इसलिए हमें इसे मूल तत्व कह कर ही समाप्त कर देना चाहिए, वह मूल तत्व जो भी था या नहीं था पर हम सब वहीं से हैं ये तो पूरी तरह से हम कह ही सकते हैं और जब हम सब वहीं से हैं तो  हमें यही कहना चाहिए की मूल तत्व हम ही हैं क्योंकि मौसमी के फल से निकलने वाला रस, मौसमी का रस ही कहलाता है ना की किसी और फल का ! पर मूल तत्व के विषय में तो यह कहना पढ़ेगा की यहां मौसमी का फल भी आप हो और उसका रस भी ! देखिए आत्मज्ञान की गहराइयों या ब्रह्मांड होने के स्वानुभव की बात की जाए तो यह अनंत हैं इनमें कहीं पर भी ठहरने की कोई जगह नहीं है आप जितना चाहे उतना इसमें उतर सकते हैं आप चाहे तो मूल तत्व से भी आगे और उससे भी आगे जा सकते हैं बल्कि जिसे हम अनंत कह रहे हैं वह अनंत भी आप ही हैं इसे यूं समझें कि आप, आप ही की गहराइयों में उतर रहे हैं  यह यात्रा आपको सब कुछ छोड़कर करनी है ताकि आप सब कुछ अपने अंदर जान पाओ ! जब ऐसा होगा तब हर एक चीज में आपको आप नजर आएंगे और हर आपमें आपको मूल तत्व नजर आएगा !


 “अब हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि हम ब्रह्मांड हैं तो हैं कैसे !”


   शुरुआत हम खुद से करते हैं की हम अपने आकार के हिसाब से एक निश्चित स्थान को घेरे हुए हैं जिसे हम हमारा शरीर कहते हैं उसे ही हम अपने लिए सबसे अहम मानते हैं और प्यार भी उसी से ही सबसे ज्यादा करते हैं ! क्योंकि हमारे होने की सबसे बड़ी पहचान फिलहाल वही है ! इसी तरह हर एक व्यक्ति अपने आकार के हिसाब से एक निश्चित स्थान को घेरे हुए है और वह भी उसे ही अपने लिए सबसे अहम मानता है !  हमारे आस पास की हर एक चीज़ जीवित या मृत या फिर चाहे कोई वस्तु हो या कुछ और, वह एक निश्चित स्थान को घेरे हुए  ! 

 ब्रह्मांड में मौजूद हर एक चीज़ अपने अपने आकार के हिसाब से ब्रह्मांड में एक निश्चित जगह को घेर के रखती है जब तक वह उस आकार से नष्ट ना हो जाए या बिखर ना जाए !

लेकिन बिखरने के बाद भी उसका जो भी आकार बनता है वह उसी क्षण एक निश्चित जगह को फिर से घेर लेती है ! यह कोई साधारण बात नही है कम से कम तब तो जब हम आत्मज्ञान की खोज में हों ! हमें पहले यह मानना होगा की यह आजादी हमें यूं ही नहीं मिली है ! इसके पीछे जरूर कुछ ऐसा है जिसे हम शायद समझ नहीं पाते या समझने की कोशिश नहीं करते ! दरअसल हमें कभी इस तरह के सवालों से कभी जूझना नही पढ़ा और इसकी जरूरत भी नही है ! पर आत्मज्ञान की चाह या ब्रह्माण्ड होने के लिए आपको इन सवालों को भी अपने विचारो हिस्सा बनाना होगा ! 

जहां तक बात रही उस खाली स्थान की जिसे हम सभी घेरे हुए हैं  इस बात से कोई फर्क नही पड़ता की आपको उसका ज्ञान है या नहीं ! सत्य तो यह है की आप बिना ब्रह्मांड हुए  ब्रह्मांड से कुछ भी प्राप्त कर ही नहीं सकते !


   

“ब्रह्मांड से जुड़ी धारणा”


जब हम ब्रह्मांड शब्द का उच्चारण करते हैं तब हमारे ज़हन में बड़ी-बड़ी गैलेक्सी और आसमान का विस्तृत रूप दिखाई देता हैं लेकिन हर बड़ी चीज छोटे छोटे कणों का ही समूह होती है जो उसे एक बड़ा आकार देते हैं यानी की हर छोटे कण में भी पूरा ब्रह्मांड मौजूद होता है लेकिन यह सोच पाना हर किसी के लिए आसान नहीं होता क्योंकि हमें बचपन से ही चीजों का विस्तृत रूप देखने की ही आदत होती है और हमें दिखाई भी ऐसा देता है अगर आप किसी माइक्रोस्कोप का उपयोग न करें तो ! 

लेकिन हमारा विषय चीजों के छोटे या बड़े आकार को सिर्फ देखना नहीं है बल्कि यह जानना है कि वह हमारे साथ किस तरह से जुड़ी हुई हैं !


 


अगर आपको आत्मज्ञान की स्वानुभूति हुई है तो आप मेरी इन बातों को सोचने में समर्थ हो सकते हैं लेकिन अगर आपको आत्मज्ञान की स्वानुभूति नहीं हुई है तो यह बात समझने के बाद भी आप इसे अंदरूनी तौर पर नजर अंदाज ही करेंगे ! ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आत्मज्ञानियों की बुद्धि, दूसरे लोगो की अपेक्षा किसी भी नए विचार को ज्यादा गहराई में ले जा पाती है ! क्योंकि आत्मज्ञान विरोधाभासी रवैये को काफी हद तक कम करता है जिससे स्वीकार्यता की संभावना बढ़ जाती है ! 

पर आपके लिए हम हर एक विचार को  साधारण भाषा लेकिन बारीकी से समझाने की कोशिश करेंगे ! क्योंकि यह पुस्तक हर आम जन-मानस  के लिए ही लिखी गई है ना की सिर्फ आत्मज्ञानियों के लिए लेकिन इसका फायदा आत्मज्ञानियो को भी बखूबी होगा और उनकी आत्मज्ञान की यात्रा और भी ज्यादा सुगम हो जायेगी जो उन्हें ब्रह्मांड बनाएगी !


 देखिए इस पूरे ब्रह्मांड में मौजूद हर एक चीज एक दूसरे से जुड़ी हुई है ! मैंने बचपन में मौसम विभाग का एक समाचार सुना था की "थोड़ी बारिश पड़ेगी जिससे मौसम पर कोई असर नहीं होगा" तब मेरे जेहन में एक बात आई कि आखिर कुछ होने का अगर कोई भी असर नहीं होगा तो फिर कोई घटना होगी ही क्यों ! बेशक हम यह कहें कि उसका असर बहुत कम होगा लेकिन उसका असर तो होगा ही ना !


  तब मैंने इसे सोचते हुए एक नई चीज समझी !  अगर हमारे जीवन से एक नैनो सेकंड भी हटा दिया जाए या बदल दिया जाए तो हमारी जिंदगी पूरी तरह से बदल जाएगी ! और मैने सोचा कि मेरे जीवन में जो भी घटनाएं हुई हैं चाहे वह कैसे भी हैं अच्छी या बुरी ! मैं उनके होने के बारे में सोचकर परेशान ना  होऊं तो ही मेरे लिए अच्छा है क्योंकि हमारे साथ या हमारे आस पास जो भी घटित होता है वह कभी भी अकेला घटित नहीं होता ! वह हमारे जीवन के सारे पहलुओं से जुड़ा हुआ होता है उसके बदल जाने का मतलब है कि आने वाले समय के सभी पहलुओं का बदल जाना ! और

तब मैंने इस सोच को अपनाया कि जो भी हुआ वह सही हुआ क्योंकि मैं आज जैसा भी हूं चाहे संतुष्ट या असंतुष्ट, खुशी में या दुख में फिर भी मुझे संतुष्ट ही होना चाहिए क्योंकि मैं इस वाले शारीरिक ढांचे में अभी भी जीवन नामक ऊर्जा के साथ हूं हालांकि यह एक अलग तरह का विषय है ! पर मैं चाहूंगा की  आप इसमें और बारीक पहलुओं को समझें !

  आने वाले समय का या बीते हुए    समय के बारे में “बदला जाना या बदल जाना” जैसे शब्द कहना उचित नही है क्योंकि बदला उसे जाता है जो पहले से तैयार हो चुका हो ! आप भविष्य में होने वाली घटनाओं को बदल नही सकते क्योंकि उन्हें बदलने के लिए उन घटनाओं का आपके पास होना जरूरी है और जो हुआ नही है वह आपके पास कैसे हो सकता है ! साथ ही आप अतीत को भी नही बदल सकते ! क्योंकि जो भी आप अतीत में बदलने की कोशिश करोगे वो कड़ी की तरह अतीत से जुड़ता चला जाएगा ! दरअसल भविष्य, वर्तमान और भूतकाल जैसा कुछ नही है ! यह हमारी सीमित सोच की उपज है हालांकि इतना सोच पाना भी किसी करिश्में से कम नहीं है ! पर ब्रह्मांड अपनी ही चाल से चलता है और उसके अपने ही काल हैं और वही चाल और काल हमारी भी है !

 किंतु जिस तरह से पृथ्वी की सतह पर रहकर भी हम पृथ्वी की गति का अनुभव नहीं कर पाते ! उसी तरह से हम ब्रह्मांड होकर भी ब्रह्मांड की गति को, उसकी चाल को और उसके कालों को समझ नही पाते, इसलिए हमें अपने द्वारा बनाए कालों की जरूरत पड़ती है जिसे हम भूतकाल, वर्तमान काल, भविष्य काल कहते हैं ऐसा नही है यह ब्रह्मांड से अलग हैं आखिर इसे आप ने बनाया है और आप ब्रह्मांड भी है लेकिन जब तक आप ब्रह्मांड होने की स्वानुभूति को हासिल नहीं करते तब तक यह आप में सीमित रहेंगे और जैसे ही आपको ब्रह्मांड होने की स्वानुभूति होगी यह आपके साथ असीमित हो जाएंगे ! इनके असीमित होने का मतलब है की आपके लिए इनके चक्र का टूट जाना ! क्योंकि ब्रह्मांड होना जानने पर इन तीनों कालों की महत्वता शून्य रह जाती है और शून्यता के साथ यह आगे नहीं बढ़ सकते ! इसलिए इन्हें टूटना ही पड़ता है इनका टूटना ही आपकी वैचारिक चाल को तीव्र गति देता है ताकि आप अपनी ब्रह्मांडीय चाल चल सकें !

 

ब्रह्मांड में कुछ भी घटता है चाहे वह बड़े पैमाने पर हो या छोटे पैमाने पर उसका कुछ ना कुछ तो असर होता ही है ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ब्रह्मांड की हर चीज एक दूसरे से जुड़ी हुई है जुड़े होने का मतलब मेरा वही है जिसे आप जुड़े होना समझते हैं जिस तरह से मानव शरीर के अंग उससे जुड़े हुए हैं या जिस तरह से फूल पत्तियां डालियों से जुड़ी हुई है उसी तरह से हम सब एक दूसरे के साथ एक जाल की तरह बंधे हुए हैं बल्कि आप अगर अपने आसपास भी ध्यान दे तो हर चीज अपने आप में भी एक जाल की तरह गूंदी हुई है !


 


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अपने शरीर को ही आप देख लीजिए कि यह कितनी सारी कोशिकाओं से गूंदा हुआ है आप कुछ भी अपने आस पास देखिए वह छोटे छोटे अणुओं, परमाणुओं, उत्तकों कोशिकाओं से मिलकर बना है बेशक आप उन्हें उस बारीकी से ना देख पाए पर उनसे बने पूर्ण या अर्धपूर्ण रूप को तो देख ही सकते हैं 

ये बात हुई उन चीजों की जिन्हें आप आंखों से देख सकते हैं लेकिन जिन्हें आप आंखों से नहीं देख सकते या देखने में समर्थ नहीं है वह भी आपस में एक दूसरे से जुड़ी हुई है चाहे जिसे आप हवा कहते हो वो हो या फिर किसी भी तरह की कोई गैस, यहां तक की सूर्य से निकलने वाली किरणों में मौजूद वो कण जिन्हे फोटोन कहां जाता है वह भी एक दूसरे से ही गूंदी हुई अवस्था में हैं या जिसे आप गुरुत्वाकर्षण (ग्रेविटी) कहते हो वह भी एक दूसरे से जुड़कर खिंचाव का बल उत्पन करता है इसी तरह से कुछ ऐसी भी चीजें हैं जिसके बारे में हम शायद कभी सोच नहीं पाते और अगर सोचने की कोशिश भी करें तब भी कुछ सोच नहीं पाते लेकिन अगर हमें ब्रह्मांड होने का स्वानुभव हासिल करना है तो हमें उस पहेली को भी हल करना होगा जिसे हम अभी तक नजरअंदाज करते आए हैं यह पहेली आपके आत्मज्ञान को एक नई ऊंचाई दे सकती है और आपको आत्मज्ञान से भी आगे ब्रह्मांड होने का स्वानुभव प्राप्त करवा सकती है आइए समझें !


 हमारे आसपास या दूर जो कुछ भी होता है उसके बीच में जो स्थान खाली (स्पेस) होता है !

(हम उसे “खाली स्थान” या “ जगह” कहकर ही बुलाएंगे ) हमारी आंखें या दूसरी इंद्रियों के द्वारा उससे यह जानकारी तय होती है कि सामने या दूसरी ओर पड़ी वस्तु या कोई भी चीज जो मुझे दिखाई दे रही है वह मुझसे लगभग कितनी दूर है और मुझसे कितनी अलग है इसका मतलब यह है कि बीच में मौजूद खाली स्थान हमारे लिए सिर्फ इतना ही मायने रखता है की वह दूसरे लोग और दूसरी चीजों को हम से दूर या अलग करता है या दिखाता है इसके अलावा वह  कोई खास मायने नही रखता ! बेशक वह हमारी रोज मर्रा की ज़िंदगी के लिए कितना भी उपयोगी हो !

 उसके अलावा हम इस बहस में नहीं पड़ेंगे कि वहां पर भी हवा या गैसेस, तरंगे, जर्म्स और बैक्टीरिया मौजूद है हम सिर्फ खाली स्थान के बारे में ही बात करेंगे जिसमें वो सब कुछ मौजूद है !


   दरअसल खाली स्थान (स्पेस) को नजरअंदाज करना ही हमारे और ब्रह्मांड के एक होने में सबसे बड़ी समस्या है क्योंकि यह खाली स्थान जो हमारे लिए कोई मायने नहीं रखता पर पूरे ब्रह्मांड में इसका फैलाव सबसे ज्यादा है बल्कि यह कहना सही होगा की ये भी ब्रह्मांड ही है जैसे आप और मैं हैं अगर हम उसे समझने या उससे खुद को जोड़ने की कोशिश करें तो हम ब्रह्मांड बनना होते देख सकते हैं !


    अब उससे आप किस तरह से जुड़ें हैं इसके लिए पहले तो आपको अपनी बुद्धि को लचीला बनाना होगा तभी आप इसे जान सकते हैं हां अगर आप ऐसा नहीं करते, तब भी आप उससे पहले से ही जुड़े हुए हैं लेकिन बिना उससे जुड़ने के ज्ञान के आपके लिए ऐसा मानना की आप जुड़े हुए हैं यह मुमकिन नही है क्योंकि आपको खाली जगह का इस्तेमाल करना तो बताया गया है पर आप और वह एक ही हैं उसके बारे में बताया नही गया !


      देखिए ब्रह्मांड में ऐसा कुछ भी नहीं है जो बिना किसी कारण के हो यदि वह खाली स्थान मौजूद है तो उसका अपना एक किरदार है आप इसी से अंदाजा लगा लीजिए की अगर वह नही होता तो जिसे हम गैलेक्सीस कहते हैं वह भी नहीं होती क्योंकि "बिग बैंग" का एक्सप्लोजन होने के लिए भी खाली स्थान की ही जरूरत पड़ती है तब तो आज आप भी नहीं होते, मैं भी नहीं होता और न ही हम इस झंझट को समझने की कोशिश कर रहे होते ! 


        यह जो खाली स्थान है यह भी ब्रह्मांड ही है अब आप यह सोचिए कि आप, मैं, हमारे आसपास के सभी लोग, आस पास पड़ी हर एक चीज बल्कि सभी ग्रह, तारे, गैलेक्सीज इस खाली स्थान के कारण एक दूसरे से जुड़े हुए हैं जो खाली स्थान मेरे आस पास मौजूद है वह चांद, सूरज अन्य तारों तक जा रहा है यानी वो आपको भी छू रहा है और दूर उनको भी छू रहा है लेकिन "छूना" शब्द कुछ अधूरा  है हमें  कहना चाहिए की ये "जुड़ा" हुआ है !


        हम अगर बात तब से करें जब से हम पैदा हुए हैं तो जिस तरह से हमारे शरीर के अंग हमारे साथ बंधे हुए हैं उसी तरह से ये खाली स्थान भी हमारे शरीर को  चारो ओर से बांधे हुए है यह आपके साथ साथ ब्रह्मांड की हर एक चीज को बांध रहा है आप अपने आसपास इसी वक्त इससे जुड़े होने का अनुभव ले सकते हैं आपके शरीर की सतह और किसी भी वस्तु या लोगों की सतह से इसका जुड़ा होना आप अभी देख सकते हैं जिस तरह से आप के हाथ, पैर, नाक, कान या बाल आपसे जुड़े हुए हैं  यह खाली जगह भी आपसे उसी तरह से जुड़ी हुई है आपको इसका पता इसलिए नहीं चलता क्योंकि यह आपको किसी तरह की तकलीफ या फिर कोई शारीरिक एहसास या अनुभव नही कराता लेकिन ऐसा नही है हम जिस ढांचे या हिस्से को ही सिर्फ अपना शरीर मानते हैं उसका अपनी जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल है और जो हमारा बाकी का शरीर है जो चारो ओर फैला हुआ है जिसे हम खाली स्थान कह रहे हैं वह भी अपना अलग अलग तरह से इस्तेमाल करती है बेशक वह हमसे जुड़ा है पर वह फैसले लेने में स्वतंत्र है कम से कम तब तक तो जब तक हम उसे अपना ही हिस्सा नही मान लेते क्योंकि जैसे ही आपको यह समझ आया की वह आपका हिस्सा है वैसे ही ब्रह्मांड में मौजूद हर एक चीज का फैसला आपका ही फैसला होगा !


         अब हम उस मुद्दे पर आते हैं जो हमें ब्रह्मांड बनाता है अब तक आप यह जान चुके होंगे कि हम सभी ब्रह्मांड का ही हिस्सा लेकिन यह सिर्फ इतना ही नहीं है जिस तरह से आप ब्रह्मांड हो

 उसी तरह से ब्रह्मांड की हर एक चीज ब्रह्मांड ही है क्योंकि जब हम किसी को पुकारते हैं तो हम सिर्फ उसके हाथ, पैर या सिर को नहीं पुकारते, ना ही हम केवल उसके चेहरे को पुकारते हैं बल्कि हम पूरे शक्श को पुकारते हैं और वह अपने इन सब अंगों के साथ हमारे सामने आता है या फिर जब हम बात पेड़ की कर रहे होते हैं तो उसमें पूरा पेड़ आता है ना की सिर्फ टहनियां और फूल - पत्तियां !


         जो ब्रह्मांड है वह सब कुछ मिलाकर है ना की सिर्फ कुछ निश्चित चीजों को ! अगर हम ये मानें की ब्रह्मांड कोई इंसान है तो हम सब उसी के अंग हैं तो हम भी ब्रह्मांड हुए ना !


आत्मज्ञान की पहेली 


आत्मज्ञान की पहेली भी इसी के साथ जुड़ी हुई है सिर्फ फर्क इतना है की आत्मज्ञान को आप महसूस करते हैं और ब्रह्मांड होना आप देख सकते हैं जब आप इसे देखना शुरु कर देंगे तब आपको इसे महसूस करने में ज्यादा समस्या नहीं होगी ! यह कुछ इस तरह होगा जैसे अमूमन आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए आपको अलग अलग लोगों या वस्तुओं की तरफ भागना पड़ता है पर आपको यह पता नही होता की क्या काम करेगा और क्या काम नहीं करेगा ! लेकिन आत्मज्ञान की चाह आपको इधर उधर दौड़ाती रहती है पर आपको यह समझना होगा की आत्मज्ञान टेहराव से फूटता है ना की हलचल से ! हां हलचल इसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा जरूर है ! पर जब आप ब्रह्मांड होना जान जाते हो तब आपके ऊपर विचारों के लगातार ऐसे तीर चलते हैं जो आत्मज्ञान हो जाने से ठीक पहले  चलना शुरू होते हैं !

जब ऐसा होना शुरू होगा तब आप इन तीरों से बच नही पाओगे ! हर तीर आपमें विचारों की एक नई शुरुआत को जन्म देगा ! यह सिलसिला आपको आत्मज्ञान के दरवाजे तक पहुंचाने की पूरी कोशिश करेगा ! और जब आप उस दरवाजे पर पहुंच जाओगे तब विचारों द्वारा उसे तोड़ने का काम भी करेगा ! और तब आपकी बुद्धि आपको अपने आप वह संकेत  देना शुरू कर देगी जो संकेत आत्मज्ञान के समय मिलते हैं तब आप पाओगे की आपने तो इन संकेतों को पहले से ही ब्रह्मांड होने की शक्ल में देख रखा है  और फिर जैसे ही यह ज्ञान आपमें आत्मसाध होगा वही ज्ञान आत्मज्ञान की शक्ल में आपके सामने होगा !



ब्रह्मांड होना धोखा है या सच ?

यूं तो बाकी जीवों की तरह मनुष्यों की भी कई विशेषताएं हैं ! (विशेषताओं से मेरा अभिप्राय किन्हीं प्रकार की कोई खास उपलब्धियों से नही है बल्कि जीव में मौजूद कुछ निश्चित गुणों से है जिसकी सहायता से हर जीव अपना कार्य भली भांति कर पाता है !)

लेकिन जो मेरी नजर में सबसे महत्वपूर्ण और उपयोगी विशेषता है वह है प्रश्न करना ! प्रश्न करना मनुष्य के मस्तिष्क में उत्तर रूपी आहार लाने का एक महत्वपूर्ण साधन है !

ब्रह्मांड होने के स्वानुभव के बाद भी एक सवाल हमें तंग कर सकता है या हो सकता है की तंग न भी करे ! पर ब्रह्मांड होने के बाद आपका मस्तिष्क पूरी तरह से आज़ाद अवस्था में आ जाता है इस अवस्था में आपके सवाल, जवाब बनना शुरू हो जाते हैं और जवाब, सवालों की तरह दिखना शुरू होते हैं पर आपको इससे घबराने की जरूरत नही है ! यह कोई भ्रामक स्थिति नही है ! हां, पर यह सवाल की आप ब्रह्मांड हैं ! वह आपमें खुद को लेकिन आपके द्वारा ही एक अदृश्य अवस्था में रख कर, आपके अंदर जो विचार हैं और उन विचारों में जो नजरंदाज करने का विचार है उसे अपने लिए उजागर कर सकता है और हमारे मस्तिष्क में अपने लिए एक निश्चित स्थान तो बना ही सकता है ! हमें ब्रह्मांड होने पर भी इस सवाल का सामना करना पड़ सकता है पर हमें इस सवाल से छिपने की जरुरत नहीं है ! बस आपको यह समझना है की छिपना या छिपाना और दिखना या दिखाना जैसा कुछ भी नही है !  यह सवाल की क्या हम ब्रह्मांड हैं ! यह सवाल भी ब्रह्मांड की ही एक कला है ब्रह्मांड होने की स्वानुभुति के बाद भी आपको इस सवाल का सामना करना पढ़ सकता है और इससे बाहर आने की कला भी आपके ही पास है क्योंकि ब्रह्मांड आप ही हैं ! आप चाहे यह सोचे कि आप ब्रह्मांड हैं या नहीं हैं पर यह दोनों ही अवस्थाओं में आपमें मौजूद है यह दिख भी रहा है और छिप भी रहा है यह आपमें होकर भी नहीं होने की कोशिश करता है और नहीं हो कर भी होता चला जाता है ! ब्रह्मांड की विशालता कहीं बाहर नहीं बल्कि आपके अंदर ही छिपी हुई है बाहर केवल यह भ्रम की स्थिति के रूप में दिखाई देती है लेकिन जो आपको बाहर दिखाई दे रहा है उसे सिर्फ भ्रम समझकर आप नजरअंदाज ना करें ! क्योंकि जो कुछ बाहर की ओर दिख रहा है वही आपमें मौजूद ब्रह्मांड है और जो आपमें मौजूद ब्रह्मांड है वही भ्रम की अवस्था में बाहर भी मौजूद है मैं फिर से कहूंगा कि आप इस दुविधा में ना पड़े क्योंकि दुविधा  किसी एक जगह बांधने की कोशिश करेगी ! दुविधाएं अक्सर ऐसा ही करती हैं क्योंकि दुविधा भी बाकी विचारों की तरह एक उपयोगी विचार ही है यह भी संभावनाओं के अधीन कार्य करता है बाकी विचारों का तुलनात्मक अध्ययन ही इसका एकमात्र कार्य है पर यही कार्य है हमें एक सुदृढ़ विचार देने में उपयोगी होता है इसके बारे में भली भांति जान कर आप इसके कार्यों का अध्ययन कर सकते हैं किंतु आप इससे मुक्त नही हो सकते ! इसका सामना तो आपको करना ही पड़ेगा चाहे अवस्था कैसी भी हो और जहां तक बात रही ब्रह्माण्ड की तो इसे आप अंदर ढूंढो या बाहर वह कुल मिलाकर आप ही में है और आप ही हैं !


“अंदर बाहर का अंतर क्या है ?”

हम जिसे अंदर बाहर का अंतर कहते हैं वह भी एक तरह का विचार ही है इस शरीर रूपी ढांचे में मौजूद मस्तिष्क में होने वाले चिंतन से उभरने वाले जो विचार होते हैं उसे हम अमूमन “मैंने सोचा” या “मेरे द्वारा सोचा गया” इस तरह से संबोधित करते हैं और जो विचार हमें बाहरी श्रोतों से आते हैं या बाहर से पता चलते हैं उन्हें हम बाहरी विचार कहते हैं पर आपके लिए कोई भी विचार तभी विचार बनता है जब वह आपके द्वारा सोचा गया हो ! हम विचार के सही या गलत होने के विषय में बात नहीं कर रहे हैं हम बस इतना ही कह रहे हैं कि कोई भी विचार केवल एक विचार ही होता है चाहे उसका स्रोत कहीं से भी हो ! क्योंकि चिंतन भी हम बाहरी स्रोतों का ही करते हैं और बाहरी स्रोतों का चिंतन भी हम अंदरूनी तौर पर करते हैं तो कुल मिलाकर यह एक दूसरे से भिन्न हो कर भी भिन्न नहीं हो पाता ! ब्रह्मांड होना समझने के संदर्भ में हम ब्रह्मांड को अंदर की ओर ढूंढना या बाहर की ओर ढूंढना जैसे विचारों में बांध सकते हैं किंतु आप किसी भी दिशा में ढूंढिए वैचारिक प्रक्रिया तो आपके ढांचे में मौजूद मस्तिष्क के अंदर ही पनपती है वहां सब कुछ एक हो जाता है अंदर बाहर जैसा कुछ नहीं रह पाता !

“वैचारिक क्रियाएं प्रतिक्रियाएं”

 जब हम ही ब्रह्मांड हैं तो इन सभी वैचारिक क्रियाओं की प्रतिकियाओं की हलचल से हम कैसे आहत हो सकते हो और हम आहत होने से बच कैसे सकते हैं ?

 देखिए यूं तो आहत होना तभी होता है जब आप खुद को इससे अलग पाते हो ! लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है की पूरा ब्रह्मांड संभावनाओं के अधीन है अधीन होने से मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि ब्रह्मांड इसका गुलाम है दरअसल यह संभावनाएं ब्रह्मांड के द्वारा ही ब्रह्मांड को स्वचालित करती हैं आप इसे ब्रह्मांड का इंधन कह सकते हो ! जो ब्रह्मांड ही ने तैयार किया है ! इस विषय पर हम आगे गहरा चिंतन करेंगें ! लेकिन अभी आप इस तरह से समझ सकते हो की हम भी संभावनाओं के अधीन ही हैं हममें भी प्रत्येक तरह की संभावना अपना कार्य करती है और अलग अलग समय पर वह हमने फूटती भी रहती है यही वजह है कि हमें लगता है कि हम एक दूसरे से अलग हैं क्योंकि यह संभावनाएं हम सभी में एक साथ, एक ही तरह से, एक ही वक्त में नहीं फूटती बल्कि किसी एक व्यक्ति में मौजूद संभावनाएं और किसी दूसरे व्यक्ति में मौजूद संभावनाएं अलग-अलग समय पर, अलग-अलग स्थानों पर और अलग-अलग तरीकों से फूट सकती है और फूटती भी है ! इसी कारण ऐसे सवाल आपको आहत करने की स्थिति में आते हैं ! वैसे आपको ब्रह्मांड होने से अलग किया तो नही जा सकता और वह कभी हो भी नही सकता क्योंकि यह एक दूसरे से भिन्न नही हैं बल्कि दोनों एक ही हैं ! पर हम मान लेते हैं की अगर कभी ऐसा हुआ भी की आपको ब्रह्मांड से अलग किया गया ! तब ना ही आप होंगे ना ही ब्रह्मांड होगा और न ही संभावनाएं होंगी ! जब कुछ भी नहीं होगा ! तब उस कुछ भी नही में ब्रह्मांड ही होगा और वह आप ही होंगे !

देखिए आपके ब्रह्मांड होने में ही यह संभावना छुपी हुई है कि आप ब्रह्मांड होने के ज्ञान या ना होने के ज्ञान जैसी दोनों ही स्थितियों में खुद को पा सकते हो ! पर चाहे आप यह जानो या ना जानो ! मानो या ना मानो ! यहां हर सवाल आप ही हो और उनके जवाब भी आप ही हो क्योंकि ब्रह्मांड आप ही हो !


संभोग और ब्रह्मांड








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